बात आज से तक़रीबन 1450 साल पुरानी है, उस समय इस्लाम धर्म में ‘बेटी बचाओ’ अभियान की शुरुआत हो गयी थी। इस अभियान को शुरू करने वाले कोई और नहीं, बल्कि हमारे नबी हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम थे। उस जाहिलियत के ज़माने में लोग अपनी मासूम बच्चियों को सामने बिठाकर कब्र खोदते थे, फिर उस बच्ची के हाथ में गुड़िया देकर, उसे मिठाई का टुकड़ा थमाकर, उसे नीले पीले और सुर्ख रंग के कपड़े देकर उस कब्र में बिठा देते थे, बच्ची उसे खेल समझती थी, वो क़ब्र में कपड़ों, मिठाई के टुकड़ों और गुड़िया के साथ खेलने लगती थी फिर ये लोग अचानक उस खेलती, मुस्कुराती और खिलखिलाती बच्ची पर रेत और मिट्टी डालने लगते थे।
बच्ची शुरू-शुरू में उसे भी खेल ही समझती थी, लेकिन जब रेत मिट्टी उसकी गर्दन तक पहुँच जाती तो वो घबराकर अपने वालिद, अपनी माँ को आवाजें देने लगती थी, लेकिन ज़ालिम वालिद मिट्टी डालने की रफ्तार और तेज कर देता था। ये लोग इस अमल के बाद वापस जाते थे तो उन मासूम बच्चियों की सिसकियाँ घरों के दरवाजों तक उनका पीछा करती थीं, लेकिन उन ज़ालिमों के दिल स्याह हो चुके थे जो नर्म नहीं होते थे। बहुत से ऐसे भी लोग थे जिनसे “इस्लाम” कुबूल करने से पहले माज़ी में ऐसी गलतियाँ हुई थीं
एक वाक़या
मैं अपनी बेटी को क़ब्रस्तान लेकर जा रहा था, बच्ची ने मेरी उंगली पकड़ रखी थी, उसे बाप की उंगली पकड़े हुऐ खुशी हो रही थी, वो सारा रस्ता अपनी तोतली ज़बान में मुझसे फरमाइशें भी करती रही और मैं सारा रस्ता उसे और उसकी फरमाइशों को बहलाता रहा। मैं उसे लेकर क़ब्रस्तान पहुँचा, मैंने उसके लिये क़ब्र की जगह चुनी, मैं नीचे ज़मीन पर बैठा अपने हाथों से रेत मिट्टी उठाने लगा, मेरी बेटी ने मुझे काम करते देखा तो वो भी मेरा हाथ बँटाने लगी, वो भी अपने नन्हें हाथों से मिट्टी खोदने लगी, हम दोनों बाप बेटी मिलकर मिट्टी खोदते रहे, मैंने उस दिन साफ कपड़े पहन रखे थे, मिट्टी खोदने के दौरान मेरे कपड़ों पर मिट्टी लग गई, मेरी बेटी ने कपड़ों पर मिट्टी देखा तो उसने अपने हाथ झाड़े, अपने हाथ अपनी कमीज़ में पोंछे और मेरे कपड़ों में लगी मिट्टी साफ़ करने लगी…।
क़ब्र तय्यार हुई तो मैंने उसे क़ब्र में बैठाया और उस पर मिट्टी डालना शुरू कर दिया, वो भी अपने नन्हे हाथों से अपने ऊपर मिट्टी डालने लगी, वो मिट्टी डालती जाती खिलखिलाती रहती और मुझ से फरमाइशें करती जाती थी, लेकिन मैं दिल ही दिल में अपने झूठे खुदाओं से दुवा कर रहा था कि तुम मेरी बेटी की कुरबानी कुबूल कर लो और मुझे अगले साल बेटा दे दो…। मैं दुवा करता रहा और बेटी मिट्टी में दफ़्न होती रही…। मैंने आखिर में जब उसके सर पर मिट्टी डालना शुरू किया तो उसने सहमी सी नज़रों से मुझे देखा और तोतली ज़बान में
पूछा: “अब्बाजान! मेरी जान आप पर कुरबान मगर आप मुझे मिट्टी में दफ़्न क्यूँ कर रहे हो…” ? मैंने अपने दिल पर पत्थर रख लिया और दोनों हाथों से और तेजी के साथ कब्र पर मिट्टी फेंकने लगा…। मेरी बेटी रोती रही, चींखती रही, दुहाइयाँ देती रही लेकिन मैंने उसे मिट्टी में दफ़्न कर दिया…। ये वो आखिरी अल्फ़ाज़ थे, जहाँ रहमतुल आलमीन नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ज़ब्त जवाब दे गया… आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हिचकियाँ बँध गईं, दाढ़ी मुबारक आँसुओं से तर हो गई और आवाज़ हलक मुबारक में फंसने लगी…।
वो शख्स दहाड़े मार-मार के रो रहा था और रहमतुल आलमीन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हिचकियाँ ले रहे थे, उसने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पूछा- “या रसूलल्लाह! (सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम) क्या मेरा ये गुनाह भी माफ हो जायेगा…” ? रहमतुल आलमीन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आँखों से अश्क़ों की नहरें बह रही थीं…।
अरब के ऐसे माहौल में अल्लाह के रसूल ने उन लोगों को दीन-ए-इस्लाम का सन्देश सुनाया और तमाम मुसीबतें उठा कर दीन को उनके दिलों में उतरा, ये रसूल की बरकत और क़ुरआन की शिक्षा का असर था कि अरब के तमाम बुरे रस्मो रवाज़ एक के बाद एक ख़तम होते चले गए और जो लोग गर्दनों तक बुराइयों में डूबे हुए थे उन्होंने इस्लाम मज़हब अपनाने के बाद मिसालें कायम कर दीं।