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खुदीराम बॉस: ऐसे वीर सपूत जो सबसे कम उम्र में भारत की आजादी के लिए फांसी पर चढ़ गए

आज हम आपको भारत माता के एक ऐसे वीर सपूत के बारे में बताने जा रहे है, जो सबसे कम उम्र में बिना किसी की परवाह किये हुए देश की आज़ादी के लिए ख़ुशी ख़ुशी अपनी जान दे दी। इस वीर सपूत का नाम था, खुदीराम बॉस। भारत माता के ऐसे वीर सपूत को हमारा सलाम है। 1908 को हाथ में गीता लेकर खुदीराम फांसी पर झूल गये। उस समय उनकी आयु 18 साल आठ महीने और 8 दिन थी।

क्रांतिकारी खुदीराम बोस भारत के ऐसे महान सपूत थे जिन्होने सबसे कम आयु में भारत को आजादी दिलाने के लिए व अंग्रेजों के मन में भय उत्पन्न करने के कारण फांसी के फंदे को गले लगा लिया। देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांति की मशाल जलाने वाले खुदीराम बोस को जहां फांसी दी गयी थी, वह स्थल आज भी सुरक्षित है। लेकिन जहां उनका दाह संस्कार किया गया था, वह स्थान सरकार की उपेक्षा का शिकार है। आज उस स्थल पर शाम में मवालियों की मजघट लगती है। केंद्रीय कारा की जिस कोठरी में खुदीराम बोस को रखा गया था, वह वर्ष में केवल एक दिन उनके शहादत दिवस के मौके पर ही खोला जाता है। यह जानकर बहुत दुख होता है कि आज की पीढ़ी को खुदीराम बोस के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इतना ही नहीं उनको यह भी नहीं पता कि खुदीराम बोस कौन थे।

Khudiram Bose

कौन थे खुदीराम बोस

1- खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के गांव हबीबपुर में में बाबू त्रैलौक्यनाथ के घर पर हुआ था। माता कानाम लक्ष्मीप्रिया देवी था। जन्म के कुछ ही दिन बाद माता-पिता का निधन हो गया। वह अपनी बहन के यहां पले-बढ़े।

2- 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल का बंटवारा कर दिया तो इसका पूरे देश में विरोध हुआ। खुदीराम पर भी इसका असर हुआ और वह क्रांतिकारी सत्येन बोस की अगुवाई में क्रांतिकारी बन गए।

3- जब वे स्कूल में पढ़ते थे, तभी से उनके दिल में क्रांति की ज्वाला भड़कने लगी थी और वह अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ खूब नारे लगाते थे। 9वीं की पढ़ाई के बाद वे पूरी तरह क्रांतिकारी बन गए और रेवेल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बन वंदेमातरम के पर्चे बांटने का काम करने लगे।

4- 28 फरवरी 1906 को सोनार बांग्ला नाम का लेख बांटते समय पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। मगर वे चकमा देकर भागने में कामयाब हो गए। इसके बाद पुलिस ने एक बार फिर उन्हें पकड़ लिया। लेकिन उम्र कम होने की वजह से चेतावनी देकर छो़ड़ दिया गया।

5- 6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर किए गए बम विस्फोट में भी उनका नाम सामने आया। इसके बाद एक क्रूर अंग्रेज अधिकारी किंग्सफोर्ड को मारने का जिम्मा सौंपा गया। उनके साथ प्रफुल चंद्र चाकी को भी इस अभियान को पूरा करने का दायित्व सौंपा गया। दोनों बिहार के मुजफ्फरपुर जिले पहुंचे। जहां वह किंग्सफोर्ड की हर गतिविधि पर नजर रखने लगे। एक दिन मौका देखकर उन्होंने किंग्सफोर्ड की बग्घी में बम फेंक दिया।

6- इस घटना में अंग्रेज अधिकारी बच गया लेकिन उसकी पत्नी और बेटी मारी गई। घटना के बाद खुदीराम बोस और प्रफुल चंद वहां से 25 मील भागकर एक स्टेशन पर पहुंचे। लेकिन वहीं पुलिस को दोनो पर शक हो गया।

7- उनको चारो ओर से घेर लिया गया। प्रफुल चंद ने खुद को गोली मार स्टेशन पर हुतात्मा हो गए। थोड़ी देर बाद खुदीराम को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उनके खिलाफ 5 दिन तक मुकदमा चला।

8- 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें मृत्य दंड की सजा सुनाई गई।

9- 11 अगस्त, 1908 को हाथ में गीता लेकर खुदीराम फांसी पर झूल गये। उस समय उनकी आयु 18 साल आठ महीने और 8 दिन थी। आजादी के संघर्ष में यह किसी क्रांतिकारी को पहली फांसी थी।

10- उनकी फांसी के बाद कई दिनों तक स्कूल-कालेज बन्द रहे। उनकी निडरता, हिम्मत, वीरता से लोग इतने प्रभावी हो गए कि बंगाल के जुलाहे नाम की एक खास किस्म की धोती बनने लगी। युवाओं में इस धोती बहुत ही फेमस हो गई थी। जिसके किनारे पर खुदीराम लिखा होता था।

इस घटना की खबर जब किंग्सफोर्ड को लगी तो उसने घबराकर अपनी नौकरी ही छोड़ दी और उसे डर लगने लगा था कि जिन क्रांतिवीरों को उसने दंड दिया था, उनके साथी उसे नहीं छोड़ेंगे। इस डर के चलते ही उसकी मौत भी जल्दी हो गई।