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जानिए हज की फजीलत

हज इस्लाम की अहम इबादतों में से एक है. यह इबादत हर उस मुसलमान पर फर्ज है जो के हज के सफर के खर्च बर्दाश्त करने की कूवत रखता हो. हज जिंदगी में एक मर्तबा फर्ज है. लेकिन अगर कोई कई मर्तबा अदा करने की कुवत रखता हो तो वह कर सकता है. हज की फजीलत इस्लाम में बहुत है ! एक हदीस से इसकी फजीलत वाजे होती है. हजरत अबू हुरैरा रजी अल्लाह ताला अनहो से रवायत है, आप सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम फरमाते थे कि जो कोई अल्लाह के लिए हज करें और उसमें कोई बुरी बात ना हुई हो और ना कोई गुनाह हुआ हो तो वह ऐसा पाक होकर लौटेगा जैसा के इस दिन पाक था जिस दिन उसकी मां ने जना था. (सही बुखारी).

कुरान की आयत व हदीस से यह साबित होता है कि हज तमाम इबादतों की तरह एक इबादत है और इस इबादत को ठीक उसी तरह से अंजाम देना चाहिए जिस तरह से हुजूर पाक सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम और आपके सहाबा किराम अंजाम देते थे. लेकिन इस दौर में जिस तरह हाजी हजरात हज को जाते हैं इसमें दिखावा व नुमाइश बहुत होती है. पूरे मोहल्ले में और खानदान में यह शोर हो जाता है कि फला आदमी हज को जा रहा है. और सफर से पहले हाजी हजरत दावतें का इंतजाम करते हैं और मिलाद का प्रोग्राम करते हैं इन तकरीर रो में हाजी हज रात का बाकायदा प्रचार होता है. और सफर में निकलने से पहले कई जगह पर मैंने देखा है कि बाकायदा ढोल बाजे बजा कर इनको फूल माला पहनाकर पूरे मोहल्ले में नारों के साथ रुखसत किया जाता है क्या यही सही तरीका है?

क्या यह तरीका हुजूर सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम और सहाबा इकराम के जमाने में रा इज था जान लीजिए के बुखारी शरीफ की हदीस है कि हजरत उमर रज़ी अल्लाह ताला ने मेंबर पर खड़े होकर के फरमाया कि मैंने रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम को फरमाते सुना है कि तमाम अमल का दारोमदार नियत पर है और हर शक्स को वही मिलेगा जिसकी इसने नियत की होगी फिर जिसने दुनिया कमाने की या किसी औरत से शादी करने की गरज से हिजरत की तो इसकी हिजरत उसी कार्य के लिए होगी इस हदीस के मुताबिक तमाम अमल का दारोमदार नियत पर है और नियत दिल के इरादे का नाम है अगर किसी के अंदर जरा सा ख्याल आ गया कि वह बड़ा आदमी है हज को जा रहा है लोग मुझे देखेंगे कि मैं हज पर जा रहा हूं वह मुझ को आने के बाद हाजी कहेंगे इससे हमारा समाज में नाम होगा और इज्जत अफजाई होगी तो यह रिया और दिखावा होगा इसको सिर्फ शोहरत मिलेगी हज कुबूल ना होगा. हमारे समाज में नमाज पढ़ने वाले और जकात देने वाले को कोई नमाजी या जगाती नहीं कहता तो हज करने वालों को हाजी क्यों कहा जाता है क्या हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और सहाबा किराम के जमाने में कोई हाजी लब्ज़ लगाता था तो आज हज करने वाले अपने आगे हाजी क्यों लगाते हैं. अल्लाह ताला हम सबको खुलूस नियत के साथ हज करने की तौफीक अता फरमाए आमीन….

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