हम आपको बता दें कि यूपी में जब से योगी सरकार आई है तब से साम्प्रदायिकता का माहौल बना हुआ है| यह हाल सिर्फ यूपी में ही नहीं है बल्कि बीजेपी जिस राज्य में भी शासन कर रही है वहां पर ऐसा माहौल है|
आपको यूपी में हुए इलाहबाद-गोरखपुर के सांप्रदायिक दंगे तो याद ही होंगे | इस इलाहबाद-गोरखपुर दंगा मामले से जुड़े दुसरे मामले में इलाहबाद हाईकोर्ट की बहस और सुनवाई पूरी हो चुकी है और इसका फैसला सुरक्षित कर लिया गया है |
खबर मिल रही है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता रशीद खान और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ यूपी और अन्य मामलों में भी जो मुख्य अभियुक्त है वो यूपी के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही हैं |
क्या है योगी पर आरोप
असद हयात ने इस मामले में जानकारी देते हुए बताया कि जो रिपोर्ट इस मामले में दर्ज हुई थी उसके मुताबिक 27 जनवरी 2007 की सुबह में योगी आदित्यनाथ में अपने समर्थकों मनोज खेमका ,भगवती जालान ,रामावतार जालान,दयाशंकर दुबे,हर्षबर्धन सिंह अशोक शुक्ला,राम लक्षमण के साथ मिलकर गोरखपुर के खुनीपुर मोहल्ला की एक मजार और इमाम चौक पर तोड़फोड़ की घटना को अंजाम दिया था और इसके साथ ही धार्मिक पुस्तकों का अपमान,आगजनी और लूटपाट भी की थी |
इन धाराओं में हुआ मामला दर्ज
आपको बता दें कि इस मामले में रशीद खान ने थाना कोतवाली गोरखपुर में केस क्राइम नंबर 43/2007 के अंतर्गत ipc की धारा 147,295,297,436,506,153 a के तरह मामला दर्ज कराते हुए रिपोर्ट लिखाई थी | आपको बता दें कि इस मामले में योगी गिरफ्तार भी हुए थे और हफ्ते भर से ज्यादा जेल रहे थे |
जब इस मामले की पूरी जांच हो गयी तो आरोपियों के खिलाफ न्यायलय में आरोप पत्र दाखिल किया गया और तब की मायावती सरकार ने इन आरोपियों पर 153 a के तहत मामला चलाने का आदेश भी दिया था |
इस सबके बाद आरोप निर्धारित किया जाना था लेकिन पता नहीं क्यों 2014 तक कोर्ट से इस बारे में कोई भी आदेश नहीं दिया गया | इसके बाद मनोज खेमका ने इस मामले में आपत्ति दिखाते हुए कहा कि इस मामले में मुकदमा चलाने का जो आदेश 13/10/2009 का है वो अवैध है क्योकि उस पर राज्यपाल द्वारा मनोनीत सचिव या अधिकारी के कोई हस्ताक्षर ही नहीं हैं |इस पर अनुसचिव के हस्ताक्षर हैं जो आदेश पारित करने की पॉवर नहीं रखते |
इलाहबाद हाईकोर्ट ने दिया ये फैसला
इस मामले में फिर इलाहबाद हाईकोर्ट में बहस हुई और यहाँ पर यूपी सरकार के वकील और उनके पैनल ने कहा कि राजनैतिक लोगों को बचाने के लिए अदालत के साथ फ्रॉड किया जा रहा है और सरकारी रिकॉर्ड में जो ओरिजनल रिकॉर्ड रखे हैं उनको छिपाया जा रहा है | आखिर उनको कोर्ट के सामने क्यों नहीं लाया जा रहा है?
सरकारी वकील ने कहा कि अगर ये दलील मान ली जाए कि राज्यपाल द्वारा मनोनीत सचिव ने हस्ताक्षर नहीं किये तो क्या तो अनुसचिव ने आदेश पारित किया वो फर्जी हो जाता है ?
जो आदेश ज़िला पुलिस अधिकारियों को भेजा गया अगर वास्तव में यही है तब क्या यह माना जायेगा कि इस मामले की अभियोजन स्वीकृति की फाइल अभी तक राज्य सरकार के गृह मंत्रालय में लंबित है,अगर ऐसी स्थिति होगी तब अभियोजन स्वीकृत कौन करेगा,अब देखना है आने वाले दिनों में योगी जी को राहत मिलती है या परेशानी।